परमहंस अनमोल वचन 05: मृत्यु के पहले जो अमृत को जान ले, समझना कि वही यात्री है

Aapni News
जिस तरह से सिख धर्म में गुरुद्वारा वहीं बनाने का महत्व है जहां पर गुरु साहिबान के चरण पड़े हो।
इनके मुताबिक झुकना वहीं हो जहां उनकी चरण धूल मौजूद हो।
हिंदुओं में भी मंदिर के प्रधानता वहीं हो जहां भगवान राम, कृष्ण या सनातन धर्म के अन्य संतो के चरण पड़े हों।
कहीं पर ही पत्थर रखने से उस महान पुरुष की आइडेंटिटी भी कमजोर हो जाती है।
परमहंस अनमोल वचन 01: कान निंदा-चुगली या गाने सुनने के लिए नहीं दिए हैं
मृत्यु के पहले जो अमृत को जान ले, समझना कि वही यात्री है।
फिर लोग इस यात्रा से ऊबते भी हैं। वही—वही रोज। वही दुकान, वही घर, वही खाना, वही पीना, वही धन…। और दिखाई भी पड़ता है कि जिनके पास धन है, उन्हें क्या मिल गया? और जिनके पास पद है, उन्हें क्या मिल गया? उनकी आंखों में भी शांति नहीं; उनके प्राणों में भी गीत नहीं; उनके जीवन में भी उत्सव नहीं; यह दिखाई भी पड़ता है। न भी देखना चाहो तो भी दिखाई पड़ता है। चारों तरफ यही है, कहां तक बचोगे, कैसे बचोगे?
लेकिन, करें क्या? सारी दुनिया दौड़ रही है। अगर हम न दौड़े तो पीछे रह जाएंगे। यह डर दौड़ाए चला जाता है कि कहीं हम पीछे न रह जाएं। पहुंचें या न पहुंचें, इसकी इतनी फिक्र नहीं है, लेकिन दूसरों से पीछे न रह जाएं, इसकी फिक्र ज्यादा है। एक स्पर्धा है, एक अहंकार है जो दौड़ाए रखता है।
और फिर कभी अगर यह दिखाई भी पड़ जाता है और समझ में भी आने लगती है बात कि दौड़ व्यर्थ है, यह यात्रा यात्रा नहीं है, तो लोग तीर्थयात्रा को निकल जाते हैं। चले काशी, चले काबा, चले गिरना! एक मूढ़ता छूटी नहीं कि दूसरी पकड़ने में देर नहीं लगती। मौलिक रूप से हमारी मूढ़ता वही की वही रहती है। फिर चाहे तुम कलकत्ता जाओ, चाहे काशी, क्या फर्क पड़ेगा? जाने वाले तुम वही के वही। पीने वाले तुम वही के वही। तुम्हारे पात्र में अमृत भी जहर हो जाएगा। तुम्हारे हाथ में सोना भी मिट्टी हो जाएगा। और मैं किसी सिद्धांत की ही बात नहीं कह रहा हूं, तुम्हारा अनुभव है यह। तुमने जो छुआ, वही मिट्टी हो गया है।
जब तक तुम न बदलो, कुछ भी न होगा। जब तक तुम्हारी आंतरिक कीमिया न बदले, तुम्हारे भीतर की रसायन—विद्या न बदले, तब तक कुछ भी न होगा। जब तक तुम पारस न बनो तब तक कुछ भी न होगा। हां, पारस बन जाओ, लोहा भी छुओगे तो सोना हो जाएगा। जहर भी पीओगे तो अमृत हो जाएगा। ऐसी अदभुत कला का नाम धर्म है, जिससे तुम पारस हो जाओ, जिससे तुम्हारे भीतर की रसायन बदल जाए।
व्यक्ति के अपने भौतिक कार्य स्वभाविक जातीय कर्म से अभ्यासवश बिना मन से हो जाते है।
महाराजा विक्रमादत्य ने वार्षिक कलेंडर तैयार किया व्यक्ति का जो मन है वो किसी शुभकार्य में जुड़ा रहे।
तीर्थ, व्रत, त्योहार, पारिवारिक व सांस्कृतिक मिलन इत्यादि सब व्यक्तियों को ईश्वर की ओर प्रेरित करने के लिए है।
Disclaimer : इस खबर में जो भी जानकारी दी गई है उसकी पुष्टि Aapninews.in द्वारा नहीं की गई है। यह सारी जानकारी हमें सोशल और इंटरनेट मीडिया के जरिए मिली है। खबर पढ़कर कोई भी कदम उठाने से पहले अपनी तरफ से लाभ-हानि का अच्छी तरह से आंकलन कर लें और किसी भी तरह के कानून का उल्लंघन न करें। Aapninews.in पोस्ट में दिखाए गए विज्ञापनों के बारे में कोई जिम्मेदारी नहीं लेता है।