परमहंस अनमोल वचन 09: जिसे हम साधारणतः जीवन कहते हैं, वह यात्रा जैसा मालूम होता, लेकिन यात्रा है नहीं।

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जिसे हम साधारणतः जीवन कहते हैं, वह भी यात्रा जैसा मालूम होता, लेकिन यात्रा नहीं है। यात्रा का धोखा है। यात्रा तो वह जो पहुंचा दे जिसके आगे जाने को फिर कोई और जगह न बचे। यात्रा तो वह जो मंजिल से जुड़ा दे, राम से मिला दे। क्योंकि राम मिले तो विश्राम है। जब तक राम नहीं, तब तक विश्राम नहीं। तब तक आपाधापी है, दौड़धूप है, चिंता—विषाद है।
जब तक राम नहीं तब तक तुम जिसे यात्रा समझ रहे, वह कोल्हू के बैल की यात्रा है। गोल रहे गोल—गोल, घूम रहे गोल—गोल। वही राह हजार बार चल रहे। कहीं पहुंचोगे नहीं। ऐसे ही कोल्हू के बैल की तरह चलते—चलते गिर जाओगे एक दिन। भ्रांति तो रहेगी कि चल रहे हो। मगर चलने से ही थोड़े कोई पहुंचता है! चलने में एक कला चाहिए। चलने में भी एक दिशा चाहिए। चलने का भी एक विज्ञान है और बहुत कम लोग हैं जो चलना जानते हैं।
चलते सभी हैं, लेकिन चलना वे ही जानते हैं जो पहुंचते हैं। कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई पलटू, कोई नानक, कोई मुहम्मद। जो कह सके कि मैं आ गया। जो कह सके कि अब मेरी कोई चाह न रही। कह ही न सके, जिसके जीवन की ध्वनि, जिसका प्रसाद, जिसकी उपस्थिति, जिसका सान्निध्य, जिसकी तरंग तुम्हें प्रमाण दे कि जो पाने योग्य था, पा लिया गया। बीज फूल हो गया। अमावस पूर्णिमा हो गई। ऐसी यात्रा जीवन बने तो उस कला, उस विज्ञान का नाम धर्म है।
और कैसे यह होगा? करोड़ों तो लोग हैं। सभी चल भी रहे हैं। चल ही नहीं रहे, दौड़ भी रहे हैं।
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योग कहता है कि यह संसार एक ट्रेनिंग स्कूल की भांति है, एक पाठशाला। इससे बचो मत और इससे भागने की कोशिश मत करो। बल्कि जीओ इसे, और इसे इतनी समग्रता से जीओ कि इसे फिर से जीने को विवश न होना पड़े तुम्हें। यही है अर्थ जब हम कहते हैं कि एक बुद्ध पुरुष कभी वापस नहीं लौटता। कोई जरूरत नहीं रहती। वह गुजर गया जीवन की सभी परीक्षाओं से। उसके लौटने की जरूरत न रही।
तुम्हें फिर-फिर उसी जीवन में लौटने को विवश होना पड़ता है, क्योंकि तुम सीखते नहीं। बिना सीखे ही तुम अनुभव की पुनरुक्ति किए चले जाते हो। तुम फिर-फिर दोहराते रहते हो वही अनुभव- वही क्रोध। कितनी बार, कितने हजारों बार तुम क्रोधित हुए हो? जरा गिनो तो। क्या सीखा तुमने इससे? कुछ भी नहीं। फिर जब कोई स्थिति आ जाएगी तो तुम फिर से क्रोधित हो जाओगे- बिल्कुल उसी तरह जैसे कि तुम्हें पहली बार क्रोध आ रहा हो!
कितनी बार तुम पर कब्जा कर लिया है लोभ ने, कामवासना ने? फिर कब्जा कर लेंगी ये चीजें। और फिर तुम प्रतिक्रिया करोगे उसी पुराने ढंग से- जैसे कि तुमने न सीखने की ठान ही ली हो। और सीखने के लिए राजी होने का अर्थ है योगी होने के लिए राजी होना। यदि तुमने न सीखने का ही तय कर लिया है, यदि तुम आंखों पर पट्टी ही बांधे रखना चाहते हो, यदि तुम फिर-फिर दोहराए जाना चाहते हो उसी नासमझी को, तो तुम वापस फेंक दिए जाओगे। तुम वापस भेज दिए जाओगे उसी कक्षा में जब तक कि तुम उत्तीर्ण न हो जाओ।
जीवन को किसी और ढंग से मत देखना। यह एक विराट पाठशाला है, एकमात्र विश्वविद्यालय है। ‘विश्वविद्यालय’ शब्द आया है ‘विश्व’ से। असल में किसी विश्वविद्यालय को स्वयं को विश्वविद्यालय नहीं कहना चाहिए। यह नाम तो बहुत विराट है। संपूर्ण विश्व ही है एकमात्र विश्वविद्यालय। लेकिन तुमने बना लिए हैं छोटे-छोटे विश्वविद्यालय और तुम सोचते हो कि जब तुम वहां से उत्तीर्ण होते हो तो तुम जान गए सब, जैसे कि तुम बन गए ज्ञानी!
नहीं, ये छोटे-मोटे मनुष्य-निर्मित विश्वविद्यालय न चलेंगे। तुम्हें इस विराट विश्वविद्यालय से जीवन भर गुजरना होगा।
पतंजलि कहते हैं,’ अनुभव उपलब्ध हो तथा अंततः मुक्ति फलित हो।’
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